The Railway Men Review :- भोपाल गैस त्रासदी की पृष्ठभूमि पर बनी द रेलवे मेन सच्ची घटना से प्रेरित कहानी है। यशराज बैनर की इस पहली सीरीज का निर्देशन शिव रवैल ने किया है। केके मेनन आर माधवन बाबिल खान दिव्येंदु मुख्य किरदारों में हैं। सीरीज इस घटना के अनदेखे पहलू को रेखांकित करती है। भोपाल गैस त्रासदी 1984 में हुई थी।
The Railway Men Review भोपाल गैस त्रासदी पर आधारित एक शानदार वेब सीरीज
एक स्टेशन मास्टर है, जिसे उसके पास्ट की नाकामयाबी 10 साल से सोने नहीं दे रही। एक रेलवे का बड़ा ऑफिसर है जो टर्मिनेट होने की कगार पर खड़ा है। एक शातिर चोर जो अपने मकसद के बीच अलग परिस्थितियों में फंस जाता है, एक जर्नलिस्ट है, जो सच्चाई को सामने लाने के करीब पहुँच चुका है तो वहीं एक रेलवे का ऐसा कर्मचारी भी हैं जो अपनी माँ को खो देने के बाद भी लोगों की जान बचाने के लिए अपनी जान गंवा देता है। अलग अलग लोग अलग अलग सिचुएशन से फंसे हैं, लेकिन मकसद एक ही था भोपाल के लोगों के समक्ष धीरे धीरे बढ़ती मौत को रोकना।
कैसे? क्या कुछ घटता है इस कहानी में?
इसी पर आज की चर्चा रहे गी रिव्यु करेंगे। वेब सिरीज़ The Railway Men
वेब सीरीज की शुरुआत में वौस ओवर में एक संवाद सुनने को मिलता है जिसमे बोला गया था कि गाँधी जी ने कहा था एन आई फॉर एन आई मेक्स थे होल वर्ल्ड ब्लाइंड ठीक ही कहा था लेकिन उनकी जान लेने वाले को तो खुद ही फंसी हुई थी ऑफ कोर्स। यहाँ गोडसे की बात हो रही थी।
लेकिन ये लाइन्स कैसे वेब सीरीज से कनेक्ट की गई है ये भी दिलचस्प था और कैसे इस कहानी में राजनीति का भी मिश्रण किया गया है, ये सब इस कहानी में आप देख सकते हैं। भोपाल के प्रसिद्ध गैस ट्रैजिडी पर बेस्ट है ये वेबसीरीज, जिसमें कुछ सच और कुछ फिक्शनल केतनके साथ वेब सीरीज को बनाया गया है। गैस ट्रैजिडी के बारे में जब हम इमेजिन करते हैं तो ऐक्चूअली रेलवे वाला ऐंगल हमारे दिमाग में आता ही नहीं है और मुझे भी ऐसा लगा।
यह फिक्शनल कहानी ही है। लेकिन लास्ट के एपिसोड में रेलवे के शहीद कर्मचारियों के नाम ये दर्शाते हैं कि इस गैस ट्रैजिडी में रेलवे ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी। हाँ, इसमें कैरेक्टर्स फिक्शनल जरूर है। बट सिनेमा के नज़रिए से बहुत इम्पैक्टफुल लगते हैं। सबसे पहले तो आपको ये वेबसेरीज़ देखने से पहले पता होना चाहिए कि इसमें टैलेंटेड ऐक्टर्स की भरमार देखने को मिलती है।
The Railway Men एक ऐसा कहानी जो आपको भावुक कर देगी
जो ओब्विअस्ली किसी भी वेब सिरीज़ या फ़िल्म को देखने के लिए पहली शर्त होती हैं। केके मेनन जैसा हरफनमौला एक्टर जहाँ इस पूरे वेब सिरीज़ की मुख्य कड़ी रहे हैं तो वहीं मिर्जापुर के बाद अपने टैलेंट का लोहा मनवाने वाले दिव्येंदु शर्मा यहाँ बेहतरीन काम कर जाते हैं। टैलेंटेड आर माधवन जहाँ एक बार प्रखरता से अपने किरदार को निभाते दिखे हैं तो वहीं अपने छोटे लेकिन मजबूत किरदार को रघुबीर यादव पूरे अनुभव के साथ निभा जाते है।
पहले एपिसोड में जहाँ दिव्येंदु भट्टाचार्य बेस्ट दिए जाते हैं तो वहीं अपने पिता इरफान खान के नक्शे कदम पर चलते हुए उनके बेटे बाबिल खान भी मास्टरक्लास एक्टिंग की क्लोज़ देखते है। अब एक रियल इंसिडेंट पर बेस्ड फ़िल्म में फिक्शनल का कितना इस्तेमाल किया जाता है और वो फिक्शनल कितना इम्पैक्टफुल रहता है ये मेकर्स के वे ऑफ मेकिंग पर डिपेंड करता है। आइ फील की रेलवे मामले में लीड कैरेक्टर्स फिक्शनल थे,
लेकिन उस ट्रैजिडी के फुटेज एस और पिक्चर्स को आज के कैरेक्टर्स को दिखाते हुए जो मिक्सअप किया गया है वो बेहतरीन है। इस वेब सीरीज का स्क्रीनप्ले बेहतरीन है। इतनी सफाई के साथ इतनी बारीकी के साथ लिखा गया है कि हर छोटे सीन का आगे चलकर बड़ा इम्पैक्ट होता है। स्टेशन मास्टर को अपने पास्ट में जो एक था कि एक बच्चे को नहीं बचा सका, उस गिल्ट की भरपाई वो एक दूसरी बच्ची को अपनी जान पर खेलकर बचा कर करता है।
दो भिखारी बच्चों के बीच दिखाया गया है कि छोटा भाई बड़े भाई से कहता है कि वो गीत सुनाओ ना जो हमारी माँ सुनाया करती थी और फिर वो गीत लास्ट के एपिसोड में ऐसी सिचुएशन पर रखा गया है जहाँ इमोशन्स बेहतरीन तरीके से उभरकर आते हैं। जूही चावला को गेट था की वो माधवन की नौकरी बचा सकती थी, जिसका इम्पैक्ट लास्ट में अगेन तब दिखा जब वो माधवन ऐन टीम को बचाने के लिए खुद रिजाइन देने को तैयार हो जाती है। तो एक छोटे सीन का बाद में बड़ा इम्पैक्ट पड़ता है तो मीन्स स्क्रीनप्ले राइटर को ऑडियंस के इमोशन्स की समझ है।
अच्छी बात यह है कि अक्सर इस तरह की कहानी असल मुद्दों से भटक जाती है और इधर उधर की चीजों में ज्यादा समय लेने लगते हैं क्योंकि उन्हें आठ एपिसोड्स बनाने होते हैं। यहाँ स्टोरी गैस ट्रैजिडी से भटकती नहीं है इसलिए चार एपिसोड में कहानी दिखा दी गयी है। जैसे राजेश खन्ना ने कहा था ना जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं, वैसे ही फ़िल्म इफेक्टिव होनी चाहिए।
नहीं अब क्योंकि ये ट्रैजिडी 1984 में हुई थी और उसी वक्त सिक्कों को भी मारा जा रहा था तो ऐसे में उसका इम्पैक्ट दिखाया जाना जरूरी था। स्टील उसे एक्स्ट्रीम तरीके से ना दिखाकर उसे भी गैस ट्रैजिडी के वन ऑफ द पार्ट की तरह दिखना भी प्रशंसनीय है। एक्टिंग पर चर्चा करें तो सबसे पहले इसमें केके मेनन की बात होनी चाहिए, जो पूरे वेब सीरीज में सबसे ज्यादा स्क्रीन स्पेस लेते दिखें है।
स्टेशन मास्टर के किरदार में उनकी एक्टिंग एकदम टॉप नोच रहती है। यह एक ऐसा किरदार था जिसमें दो तरह के माहौल में एक इंसान का उठना, बैठना, रिऐक्ट करना, संवाद बोलना दिखाना था। एक नॉर्मल और एक ऐसी सिचुएशन में जब माहौल ऐसा हो कि हवा में जाते ही इंसान मर जाए या जब वो धीरे धीरे मौत के करीब आ रहा केके मेनन ने अपने रोल में जान डाल दी है।
सांस घुटने में जीस तरीके से वो पॉज़ीस और रुक रुक के बोलते हैं। वो जबरदस्त है। इवन कुछेक मौकों पर उनके फेस एक्सप्रेशन सारी कहानी बयां कर देते हैं। एक सीन में जब वो अपने केबिन से बाहर निकलते हैं और स्टेशन का माहौल देखते हैं तब उस वक्त सीन में स्टेशन का माहौल नहीं दिखाया जाता। लेकिन केके मेनन के एक्स्प्रेशन से अनुभूति हो जाती है कि वहाँ किस तरह का मंजर रहा होगा।
वहीं इमाद के किरदार में बाबिल खान का काम अच्छा है। बाबिल खान टैलेंटेड है और सही किरदार मिलते रहे तो निश्चित तौर पर 1 दिन अपने पिता जैसे ऐक्टर बनकर उभरेंगे। आर माधवन एक रेलवे अधिकारी बने हैं, जो गंभीर परिस्थिति में भी अपने सीनियर्स के विरुद्ध जाकर अपना फर्ज निभाते हैं। वहीं दिव्येंदु शर्मा जिन पर मिर्जापुर के मुन्नाभाई वाले किरदार का ठप्पा सा लग गया था, वो निश्चित तौर पर इस किरदार से थोड़ा साफ हो जाएगा।
वो एक वर्सटाइल ऐक्टर हैं जिन्हें अलग अलग तरह के किरदार में देखना सुखद अनुभूति कराता है। वेब सीरीज में वह एक चोर के किरदार में हैं जो स्टेशन मास्टर के साथ मिलकर उस आपदा में जान की बाजी लगाकर लोगों को बचाते हैं। पहले एपिसोड में दिव्येंदु भट्टाचार्य भी अपना काम बेहतरीन तरीके से करते हैं।
कुछ एक जगह कमाल का कैमरावर्क भी देखने को मिलता है। वो चाहे मशीनरीज के बीच से कैमरे का निकलना हो या लोगों के मरते जाने को दिखाने के लिए 90 डिग्री से कैमरा को घुमाकर दिखाना हो, जो ऑफ कोर्स उस स्थिति को दिखाने में थ्रिल की मात्रा को बढ़ाती है। क्लाइमैक्स में ड्रोन शॉट में लाशों के ढेर को दिखाना जिसमें आदि तरफ खबरें खुदी हुई है और आँधी तरफ लाशें जलती हुई दिखाना अच्छी सिनेमैटोग्राफी का नमूना है।
दंगों और गैस ट्रैजिडी जैसे माहौल में भी सरदारों द्वारा लंगर खिलाया जाना भी एक अलग कहानी बयां करती है। वेब सीरीज में इतना सारा क्राउड दिखाना ओल्ड रेलवे स्टेशन में कन्वर्ट करना, पुरानी रेलगाड़ीयॉं दिखाना सब एक साथ हैंडल करना ईज़ी काम नहीं रहा होगा। मेकर्स के लिए बट स्टिल कहीं पर भी यह सब बनावटी नहीं लगा। एक समय में तो ऐसा लगता है जैसे हम कोई ज़ोंबी मूवी देख रहे हैं। कहानी पहले एपिसोड से ही अपने बुद्दे की तरफ बढ़ने लगती है।
कहीं पर भी बेफिजूल के सीन के लिए जगह नहीं रखा गया है और यही कारण है कि दर्शकों का कहानी से कभी भी कनेक्शन काटता नहीं है। डायरेक्शन अच्छा है। हालांकि आइ फील की कम ही ऐसे डाइरेक्टर होते हैं जो फ़िल्म को अपने कंधे पर लेकर चलते है। मैक्सिमम टाइम वो खुद असिस्टेंट डायरेक्टर्स के भरोसे चलते हैं तो अगर डाइरेक्टर ही डाइरेक्टर है
तो वेबसेरीस अच्छी है। बीजेपी को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया गया और यह तभी होता है जब मेकर्स को पता होता है की हमारा काम ही इतना अच्छा है कि बिना के सहयोग के भी इम्पैक्टफुल सीन बना लेंगे। यह कहानी कैसे लगी हमे आप comment section जरुर बताए
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